भुखमरी और अकाल
अकाल
अकाल में भुखमरी स्वाभाविक होती है, पर प्रत्येक भुखमरी जैसी अवस्था में अकाल नहीं होता। भुखमरी ग़रीबी की ओर भी इंगित करती है किन्तु सदैव ही ग़रीबी का अर्थ भुखमरी भी नहीं होता। आइए, हम गरीबी के सामान्य धरातल से आगे बढ़ कर अकाल की विभीषिकापूर्ण मरुभूमि पर कदम रखें।
जैसे हमने अध्याय-2 में बात की थी, गरीबी परम अभाव नहीं बल्कि सापेक्ष अभावों की द्योतक भी हो सकती है। भुखमरी के हालात पैदा हुए बिना भी ग़रीबी का अस्तित्व सम्भव हो सकता है-यह गरीबी भी बहुत अखरने वाली सिद्ध हो सकती है। जहाँ कहीं भुखमरी की नौबत आ जाए वहाँ तो गरीबी की अवस्था की उपस्थिति निर्विवाद ही होती है। सापेक्ष अभाव का दर्शन कुछ भी कहता रहे, भुखमरी तो अति-भयंकर परम अभाव का ही परिणाम है।
संसार के कई भागों में भुखमरी सामान्य-सी बात मानी जाती है किन्तु इस सामान्य भुखमरी और अचानक पड़े भीषण अकालों में भेद समझना बहुत जरूरी है। ईसा पूर्व 436 में हज़ारों रोमवासी सामान्य भुखमरी के कारण टाइबर नदी में नहीं कूद पड़े थे ! सन् 918 में कश्मीर में वितस्ता (झेलम) का जल प्रवाह शवों से सामान्य भुखमरी के कारण नहीं छुप गया था, न ही चीन में 1333-37 के बीच एक ही क्षेत्र में 40 लाख लोगों की मौत इसी कारण हुई थी ! भारत में 1770 में एक करोड़ लोग सामान्य भुखमरी के शिकार नहीं हुए और न ही आयरलैंड की आबादी का 20% 1845-51 के आलू अभाव में केवल सामान्य भुखमरी के शिकार हुए थे, और लगभग इतनी ही आबादी देश से पलायन को भी बाध्य हो गई थी ! यह सब अकाल की परिभाषा में ही आता है। अकाल की परिभाषा से जुड़े साहित्य की भरमार है, पर बाढ़ या अग्निकांड की भाँति अकाल को जानने के लिए किसी विशेष परिभाषा का बंधन आवश्यक नहीं प्रतीत होता ।
को पता लगे उससे पहले ही उसने काफी अनाज ख़रीद लि या। इस तरह 1974 के मध्य तक ऐसी अवस्था आ गई कि शेष विश्व की जनसंख्या के लिए केवल तीन सप्ताह तक चल सकने वाले खाद्यान्न भण्डार बचे थे। यह बहुत ही चिन्तनीय स्थिति थी।"
इस सारे विश्लेषण में देश भर, यहाँ तक कि विश्व भर के लिए अनाज की उपलब्ध मात्रा पर ध्यान केन्द्रित रहा है। किन्तु किसी भी समाज के समूहविशेष पर भी यही बातें लागू होती हैं। उत्पादन और उपयोग वृद्धि के दौर में भी किसी समूहविशेष की अनाज आदि पा सकने की शक्ति में बहुत कमी आ सकती है। तीन समस्याएं : (1) निरन्तर व्यापक भुखमरी का बने रहना (2) भुखमरी की दशा में और बिगाड़ आना तथा (3) अचानक भयंकर भुखमरी के हालात पैदा होना अलग-अलग तरह की समस्याएँ हैं। ये एक-साथ पैदा हो सकती हैं, पर ऐसा अनिवार्य नहीं है, वस्तुतः सामान्यतः इनकी एक-साथ उत्पत्ति नहीं होती।
समूहों में तुलना यद्यपि अकालों में भुखमरी काफी फैल जाती है, फिर भी देश के सभी वर्गों और समूहों पर इसका प्रभाव एक जैसा नहीं पड़ता। वस्तुतः ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि किसी अकाल से समाज के सभी वर्ग एक जैसी तरह प्रभावित हुए हों। इसका कारण यही है कि विभिन्न वर्गों की खाद्य भण्डारों पर अधिकार क्षमता में काफी अन्तर होते हैं तथा उत्पादन में कमी आने पर इन अन्तरों का महत्व बहुगुणित हो जाता है।
इस विषय में काफ़ी अटकलबाज़ी चलती रही है कि क्या भारत में 1344-5 में ऐसा अकाल पड़ा था ? कुछ साक्ष्य तो इस अकाल के बहुत व्यापक प्रसार की ओर इंगित करते हैं। 'एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका' तो बड़े अधिकार से इस बात का दावा करता है कि हालात इतने बिगड़ गए थे कि मुग़ल बादशाह भी अपने घर के लिए आवश्यक सामग्री नहीं जुटा पाया। किन्तु इस कथन की असत्यता का प्रमाण इसी बात से मिल जाता है कि भारत में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना तो कहीं 1526 में हो पाई थी। उस ज़माने में तो मुहम्मद बिन तुग़लक बादशाह थे। उन्हें घर की जरूरी चीजें पाने में कठिनाई का प्रश्न ही नहीं उठता। वे इतने सम्पन्न थे कि उन्होंने इतिहास में सर्वश्रेष्ठ अकाल सहायता की व्यवस्था की थी इसमें करों की मुआफ़ी, नकद सहायता का वितरण, राहत केन्द्र खोलना और पका हुआ भोजन बाँटना शामिल था। सुनी-सुनाई बातों को इतिहास मान बैठना वस्तुतः बहुत ही भ्रामक एवं ख़तरनाक होता है। इसी विश्वकोश के एक अन्य खंड में कहा गया है कि ऐथनले
से अल्फ्रेड के पलायन को निस्सहाय भगोड़ों की भाँति भागने का नाम केक से जुड़ी एक मूर्खतापूर्ण गप्प के आधार पर दिया गया है। हां, यह सत्य है कि कुछ अकालों का प्रभाव अधिक विस्तृत होता है। सन् 1944 के डच अकाल का प्रभाव भी वहाँ के समाज में बहुत व्यापक रहा था।
समाज के विभिन्न समूहों पर खाद्य पदार्थों की उपलब्धता में कमी के प्रभावों में अन्तरों का महत्व एक अन्य दृष्टि से बहुत अधिक होता है समाज के कुछ वर्गों को तो कुल मिलाकर अल्प उपलब्धता नहीं होने पर भी बहुत ही अधिक कमी झेलनी पड़ जाती है। इस विचार का कोई आधार नहीं है कि सभी समूहों का खाद्य उपयोग एक ही दिशा में परिवर्तित होना चाहिए, परिवर्तन अनुपात भिन्न हो सकते हैं। अगले अध्यायों में हम देखेंगे कि किन-किन समूहों के उपयोग में बहुत ही तीव्र विपरीत परिवर्तन आते रहे हैं।